Jawahar Lal Nehru – Story of First Prime Minister of India
भारत में प्रधानमंत्री का पद सबसे ताकतवर होता है। पिछले 77 सालों में PM की कुर्सी तक पहुंचने का सपना बहुतों ने देखा, लेकिन इस पर बैठने का मौका अब तक सिर्फ 14 शख्सियतों को मिला है। किसी को जनता का अपार समर्थन मिला, तो किसी को इसके लिए तिकड़म करनी पड़ी।
Story of First Prime Minister of India
जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री थे और स्वतन्त्रता के पूर्व और पश्चात् की भारतीय राजनीति में केन्द्रीय व्यक्तित्व थे।
महात्मा गांधी के संरक्षण में, वे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के सर्वोच्च नेता के रूप में उभरे और उन्होंने 1947 में भारत के एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में स्थापना से लेकर 1964 तक अपने निधन तक, भारत का शासन किया। वे आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य – एक सम्प्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, और लोकतान्त्रिक गणतन्त्र – के वास्तुकार माने जाते हैं।
एक कागज की पर्ची से PM बने नेहरू,
पटेल के साथ थीं 80% कांग्रेस कमेटियां,
किसी ने नेहरू का नाम तक नहीं लिया
गांधी जी जिद पर पटेल ने नाम वापस ले लिया
चीन से मिली हार से टूट गए नेहरू , बीमार रहने लगे
एक कागज की पर्ची से PM बने नेहरू
स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री का पद संभालने के लिए कांग्रेस द्वारा नेहरू निर्वाचित हुए, यद्यपि नेतृत्व का प्रश्न बहुत पहले 1941 में ही सुलझ चुका था, जब गांधीजी ने नेहरू को उनके राजनीतिक वारिस और उत्तराधिकारी के रूप में अभिस्वीकार किया।
15 अगस्त 1947 से सालभर पहले ही साफ हो गया था कि भारत की आजादी अब ज्यादा दिन दूर नहीं। ये भी तय था कि कांग्रेस अध्यक्ष भारत के पहले अंतरिम प्रधानमंत्री बनेंगे, क्योंकि 1946 के सेंट्रल असेंबली चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला था। 1940 के रामगढ़ अधिवेशन के बाद लगातार 6 सालों से मौलाना अबुल कलाम ही कांग्रेस अध्यक्ष चुने जा रहे थे।
कांग्रेस प्रेसिडेंट के चुनाव की घोषणा हुई, तो अबुल कलाम फिर चुनाव लड़ना चाहते थे; लेकिन तब तक गांधी, नेहरू के हाथ में कांग्रेस की कमान देने का मन बना चुके थे। 20 अप्रैल 1946 को उन्होंने मौलाना को पत्र लिखकर कहा कि वे एक स्टेटमेंट जारी करें कि अब ‘वह अध्यक्ष नहीं बने रहना चाहते हैं।’
उस वक्त के कांग्रेस महासचिव आचार्य जेबी कृपलानी अपनी किताब ‘गांधी हिज लाइफ एंड थाटॅ्स’ में लिखते हैं कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक 11 दिसंबर 1945 को थी, जिसे आगे बढ़ाकर 29 अप्रैल 1946 किया गया। इसी दिन कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होना था।
पटेल के साथ थीं 80% कांग्रेस कमेटियां
परंपरा के मुताबिक प्रांत की 15 कांग्रेस कमेटियां ही अध्यक्ष के नाम का प्रस्ताव रखती थीं। इनमें से 12 कमेटियों ने सरदार वल्लभ भाई पटेल का नाम प्रस्तावित किया। किसी भी कमेटी ने जवाहरलाल नेहरू का जिक्र तक नहीं किया।
कृपलानी अपनी किताब में लिखते हैं, ‘मैंने कमेटी के फैसले के बाद सरदार पटेल के नाम वाले प्रस्ताव का पर्चा गांधीजी के सामने पेश किया। गांधीजी ने इसे देखा तो नेहरू का नाम नहीं था। इसके बाद उन्होंने बिना कुछ कहे पर्चा मुझे वापस दे दिया।’
कृपलानी गांधी की आंखों से समझ जाते थे कि वे क्या चाहते हैं। कृपलानी ने नया प्रस्ताव तैयार कराया। इसमें पटेल के अलावा नेहरू को भी कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने का प्रस्ताव था।
इस पर सबने दस्तखत किए। सब जानते थे कि मन से गांधी नेहरू को ही अध्यक्ष और PM देखना चाहते हैं। अब भी मैदान में सरदार पटेल थे और उनके सामने नेहरू का जीतना बेहद मुश्किल था।
गांधी जी जिद पर पटेल ने नाम वापस ले लिया
कांग्रेस महासचिव कृपलानी ने गांधी की मर्जी के अनुसार सरदार पटेल की नाम वापसी का एक पत्र बनाया। पटेल ने इस पत्र पर दस्तखत करने से मना कर दिया। एक तरह से पटेल ने नेहरू का विरोध किया था। वो पत्र गांधी के पास पहुंचा तो उसमें पटेल के दस्तखत नहीं थे।
उन्होंने पटेल के पास वापस वो पत्र पहुंचाया। इस बार पटेल समझ गए कि गांधी अड़ गए हैं और उन्होंने उस पर दस्तखत कर दिए। नेहरू को निर्विरोध कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया और इस तरह आजाद भारत को पहला अंतरिम प्रधानमंत्री मिला।
गांधी ने कहा- नेहरू विदेश में पढ़ा है, उसे अच्छी समझ है
गांधी ने कहा था कि नेहरू कभी नंबर दो पर काम नहीं करेगा। अकेला नेहरू ही कैंप में अंग्रेज है। वह अंग्रेजी तौर तरीके जानता है। विदेश में पढ़ा है। उसे विदेश मामलों की अच्छी समझ है। नेहरू अंतरराष्ट्रीय मामलों से अच्छे से निपट लेगा। पटेल देश को अच्छे से चला लेगा। ये दोनों देश चलाने वाली बैलगाड़ी के दो बैल होंगे।’
डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि गांधीजी ने एक बार फिर से ग्लैमरस के लिए अपने भरोसेमंद लेफ्टिनेंट का बलिदान कर दिया।
नेहरू के हाथ में देश आया तो सब कुछ नया था। उन्हें ही परिस्थितियों और लोगों के साथ मिलकर देश गढ़ना था। गांधीजी जानते थे कि वल्लभ भाई पटेल बूढ़े हो चले हैं। देश को नई उम्र का नेता चाहिए। नेहरू नई उम्र के होने के साथ पढ़े-लिखे थे। आजादी के बाद हम वो भारत थे, जिसके नेताओं को पूरी दुनिया के साथ एक जाजम पर बैठकर अपने तौर-तरीके से आगे बढ़ना था। कुछ साल बाद ही पटेल का निधन भी हो गया। इससे ये सिद्ध होता है कि गांधीजी का फैसला सही था।
जवाहरलाल नेहरू ने 14 अगस्त 1947 की आधी रात को अपना फेमस ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ भाषण दिया। 16 साल 286 दिन तक PM रहे और पद पर रहते हुए ही निधन हुआ।
चीन से मिली हार से टूट गए नेहरू , बीमार रहने लगे
20 नवंबर 1962 को प्रधानमंत्री नेहरू ने चीन के साथ युद्ध में भारत की हार स्वीकार कर ली थी। युद्ध शुरू होने से पहले तक उन्हें भरोसा था कि चीन उनका दोस्त है।
‘जवाहरलाल नेहरू: एक बायोग्राफी‘ में S. गोपाल लिखते हैं कि तत्कालीन राष्ट्रपति एस राधाकृष्णनन ने अपनी ही सरकार पर गंभीर आरोप लगाए थे। उन्होंने नेहरू के फैसलों पर सवाल उठाए थे। सरकार और कांग्रेस के नेता दबी जुबान में चीन युद्ध के लिए नेहरू को जिम्मेदार मानते थे।
नेहरू गंभीर रूप से बीमार हो गए थे। उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए करीब 1 साल कश्मीर में रहना पड़ा था। वे सालभर में भले ही शारीरिक रूप से ठीक हो गए हों, लेकिन मानसिक रूप से टूट गए थे।
- मई 1964 को दिल्ली लौटे।
- 27 मई को जब बाथरूम से लौटे तो पीठ दर्द की शिकायत की।
- डॉक्टरों को बुलाया गया।
- वे बेहोश हो चुके थे।
27 मई 1964 की दोपहर 2 बजे बेहोशी की हालत में ही दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो चुका था।
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