कावंड़ यात्रा 2023 | Kanwar Yatra 2023
भगवान शिव के भक्त बांस की लकड़ी पर दोनों ओर टिकी हुई टोकरियों के साथ गंगा के तट पर पहुंचते हैं और टोकरियों में गंगाजल भरकर लौट जाते हैं। कांवड़ को अपने कंधों पर रखकर लगातार यात्रा करते हैं और अपने क्षेत्र के शिवालयों में जाकर जलाभिषेक करते हैं। ऐसा करने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है और जीवन में कभी कोई कष्ट नहीं होता है।
सावन के महीने में कांवड़ यात्रा का विशेष महत्व है
सावन महीने की शुरुआत के साथ ही भगवान शिव के भक्तों की वार्षिक तीर्थयात्रा, कांवर यात्रा शुरू हो जाती है। इस साल यह 4 जुलाई को शुरू होगा और 15 जुलाई को समाप्त होगा।
यात्रा का नाम ‘कांवर’ शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है एक बांस का खंभा जिसके विपरीत छोर पर पवित्र जल के कंटेनर बंधे होते हैं। लाखों भक्त महादेव का आशीर्वाद लेने के लिए उत्तराखंड में हरिद्वार, गौमुख, गंगोत्री, बिहार में सुल्तानगंज, उत्तर प्रदेश में प्रयागराज, अयोध्या और वाराणसी जैसे तीर्थ स्थानों की यात्रा करते हैं और कांवर में गंगा जल लेकर लौटते हैं। फिर यह जल भारत भर के 12 ज्योतिर्लिंगों सहित शिव मंदिरों में चढ़ाया जाता है। इस अनुष्ठान को जल अभिषेक के रूप में जाना जाता है।
कांवड़िए भोलेनाथ का जलाभिषेक करने के लिए कांवड़ में जल भरकर लाते हैं
पहले कांवड़िए थे भगवान परशुराम
धार्मिक ग्रंथ के जानकारों का मानना है कि कावड़ यात्रा की शुरुआत सबसे पहले भगवान परशुराम ने की थी. उन्होंने कांवड़ से गंगाजल लाकर उत्तर प्रदेश के बागपत के पास बना पुरा महादेव का अभिषेक किया था. भगवान परशुराम गढ़मुक्तेश्वर से कांवड़ में गंगाजल लेकर आए थे और फिर इस प्राचीन शिवलिंग का अभिषेक किया था. ये परंपरा आज भी चली आ रही है.
एक पौराणिक मान्यता के अनुसार, रावण को पहला कांवरिया कहा जाता है। समुद्र मंथन से विष निकला और संसार जलने लगा। संसार को बचाने के लिए भगवान शिव ने जहर पीना स्वीकार किया, इससे वे जहर की नकारात्मक ऊर्जा से पीड़ित होने लगे। रावण ने तब अपनी कांवर में पवित्र जल लेकर शिवलिंग का अभिषेक किया। इससे भगवान शिव को अपने अंदर से जहर की नकारात्मक ऊर्जा से थोड़ी बहुत मदद मिली निकालने में ।
कावंड़ यात्रा – महत्व | Kanwar Yatra – Significance
भगवान शिव का आशीर्वाद जीवन के हर बड़े संकट से निपटने में मदद कर सकता है। अगर कोई पूरी श्रद्धा और सच्ची भावना के साथ उन्हें पानी भी अर्पित करता है, तो उस व्यक्ति पर उनकी कृपा बनी रहती है। यही कारण है कि हर साल भक्त भगवान शिव के प्रति अपनी भक्ति दिखाने के लिए कांवर यात्रा निकालते हैं। जल ले जाते समय, भक्त नंगे पैर चलते हैं, और कुछ जमीन पर लेटकर तीर्थयात्रा पूरी करते हैं। यात्रा के दौरान वे भगवा वस्त्र पहने हुए हैं। तीर्थयात्रा के दौरान कई लोग उपवास रखते हैं और भोजन, पानी और नमक का सेवन सीमित करते हैं।
सावन माह का महत्व | Significance of Sawan
कांवड़ यात्रा – नियम
- कांवड़ यात्रा के दौरान किसी भी तरह का नशा या तामसिक भोजन नहीं करना चाहिए। कांवड़ यात्रा पूरी तरह पैदल की जाती है।
- यात्रा प्रारंभ होने से लेकर पूर्ण होने तक सफर पैदल ही किया जाता है। यात्रा में वाहन का प्रयोग नहीं किया जाता।
- कांवड़ में गंगा या किसी पवित्र नदी का ही जल ही रखा जाता है, किसी कुंवे या तालाब का नहीं।
- कावड़ को हमेशा स्नान करने के बाद ही स्पर्श करना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए कि यात्रा के समय कांवड़ या आपसे चमड़ा स्पर्श ना हो।
- कांवड़ यात्रा के दौरान ध्यान रखना चाहिए कि अगर आप कहीं रुक रहे हैं तो कांवड़ को भूमि पर ना खें।
- कांवड़ को हमेशा स्टैंड या डाली पर ही लटकाकर रखें। अगर गलती से जमीन पर कांवड़ को रख दिया है तो फिर से कांवड़ में पवित्र जल भरना होता है।
- कांवड़ यात्रा करते समय पूरे रास्ते बम बम भोले या जय जय शिव शंकर का उच्चारण करते रहना चाहिए।
- यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कांवड़ को किसी के ऊपर से लेकर ना जाएं।
प्रश्नोत्तर:
केवल सावन के महीने में ही क्यों की जाती हैं कांवड़ यात्रा?
कांवड़ यात्रा का इतिहास भगवान शिव से संबंधित है जिसमें शिव भगवान ने समुंद्र मंथन के दौरान निकले विष को पीकर सृष्टि की रक्षा की। जिसके पश्चात शिव भगत रावण तथा अन्य देवताओं द्वारा कांवड़ में जल भरकर भगवान शिव को विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त करने हेतु जलाभिषेक किया गया था। तब से ही कांवड़ प्रथा प्रचलित हो गई।
सर्वप्रथम किसने प्रारम्भ की कांवड़ प्रथा?
पौराणिक कथाओं के अनुसार परशुराम जी ने सर्वप्रथम उत्तर प्रदेश के बागपत के पास स्थित पूरा महादेव का कावंड़ से गंगाजल लाकर जलाभिषेक किया था।
कांवड़िया कौन होते हैं?
शिवभगत श्रावण के महीने में बांस की लकड़ी पर दोनों तरफ टोकरियों में पवित्र स्थान पर पहुंचकर उसमे गंगाजल रखकर यात्रा करते हैं, उन्हीं को कांवड़िए कहा जाता है।
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