इंदिरा गांधी की राजनीति
इंदिरा गांधी… सत्ता हासिल करना एक बात है और पूर्ण ताक़त हासिल करने की चाहत अलग बात है।
गाँधी जिसे भारत का सबसे ताकत वाला प्रधानमंत्री माना जाता है। उन्हें अपनी पिता की राजनीतिक जागीर मिली थी, जिसकी वो एकलौती वारिस थी। कहने का तो देश एक लोकतंत्र था परन्तु जब से India that is BHARAT का गठन हुआ, तब से ही देश की शीर्ष सत्ता के लिए नेहरू-गाँधी फॅमिली ने अनैतिक रास्ते को चुना है। नेहरू ने पटेल से गलत ढंग से सत्ता हथियाया, फिर इंदिरा ने शास्त्री जी और मोरारजी देसाई को गुप्त ढंग से रास्ते से हटाया।
दक्षिण भारतीय कामराज को मुख्य राजनीति से दूर करने का काम भी इंदिरा ने काफी चालाकी और धूर्त्तता-पूर्ण तरीके से की। अयोग्यता के कई प्रमाण के बाद भी इंदिरा ने अपनी पकड़ सत्ता से जाने नहीं दी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ इमरजेंसी को लायी और फिर शुरू हुआ दुनिया के सबसे बड़े डेमोक्रेसी की हत्या।
जो खिलाफ हुए जेल में ठुसे गए। अहिंसा की प्रतिमूर्ति बुजुर्ग JP भी जेल में थे, तो नए खून से उबाळ खाये फर्नाडिस भी अपने को छिपाते फिर रहे थे। देश के राजकुमार संजय गाँधी ने जबरदस्ती मानवता की हत्या शुरू कर दी थी और यह पहली बार था जब किसी सरकारी शक्ति ने लोगों को नपुंशक बनाने की घटिया काम को देश की राजधानी की सड़कों पर करने जा रही थी। जनसँख्या और गरीबी घटाने का मानव इतिहास में इससे बुरा नमूना किसी देश में आपको देखने को नहीं मिलेगा। यह इतना बुरा था की हिटलर की रूह भी काँप जाए। 19 महीनों के दौरान 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कर दी गई थीं।
इंदिरा गाँधी की एक बड़ी कमज़ोरी ये थी कि जब किसी कार्रवाई की ज़रुरत होती थी तो कार्रवाई नहीं करती और जब हालात ख़राब होने लगते तो अत्यधिक प्रतिक्रिया होने लगती।
इंदिरा गाँधी के पतन की शुरुआत उसी समय हुई जब वो अपने सत्ता के शीर्ष पर थीं।
1971 की बड़ी जीत के बाद भी हम जमीनी रूप से कुछ नहीं पाए थे। हमने 93000 POW को छोड़ दिया पर अपने सिपाही को वापस नहीं ला पाए। अभी आपने अभिनंदन वर्धमान की कहानी सुने होंगे। 3 दिन के अंदर हमने अपने pilot को पाकिस्तान की सैर करा के वापस ले आया।
अपना घर गवां के दूसरे का घर बनाने वाली थी। बांग्लादेश बनवा दिया और अपना कश्मीर की समस्या जस की तस छोड़ दी अपने पिता जवाहरलाल नेहरू की तरह। इतना इनको दिमाग नहीं था की जुल्फिकार अली भुट्टो जो पैर पकड़ के शिमला समझौता कर रहा है तो अपना कश्मीर पूरा ले लें।
संजय गाँधी – देश का राजकुमार
धृतराष्ट्र और गांधारी की पुत्र-मोह की तरह इंदिरा ने संजय को वो अधिकार दे दिए थे जिसकी पार्टी के संविधान या देश के संविधान के अनुसार कोई जगह नहीं थी।
पार्टी में हमेशा इंदिरा का विरोध होता रहता था और वो हर वक़्त अपने विरोधियों को दबाने की ही कोशिश करती रह गयी। उन्हें डर था की एक बार यह फॅमिली बिज़नेस गया फिर कभी हाथ नहीं आने वाली थी। इंदिरा ने राज्यों में भी कभी किसी मुख्यमंत्री की चलने नहीं दी। मुख्यमंत्रियों को उनके अधिकारों को इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं थी। इंदिरा गांधी मुख्यमंत्रियों के लिए किसी भी तरह की आज़ादी को अपनी सत्ता के लिए ख़तरा समझती थीं।
उस समय पार्टी में चाटुकारिता इस हद तक हावी हो चुकी थी कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ये नारा दे दिया,
“इंदिरा भारत हैं, और भारत इंदिरा”
इंदिरा चाहती थीं कि नौकरशाही और न्यायपालिका उनके प्रति प्रतिबद्ध रहे न कि संविधान और देश के प्रति जैसा कि होना चाहिए था।
The National Emergency 1975: Indira is India,India is Indira
इंदिरा के वेपरवाह निर्णय और दुर्बल नौकरशाह
बैंकों और बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण जिसके परिणामस्वरूप 1990 में भारतीय अर्थव्यवस्था का दिवाला हो गया। अर्थव्यवस्था में संरक्षणवाद को इतना बढ़ावा दिया कि लालफ़ीताशाही ने भारत के उभरते उद्यम का गला घोंट दिया।
भारत ने 1971 के युद्ध में करोड़ों रुपये खर्च करके, हजारों सैनिकों की जान गंवाई और 1 करोड़ बांग्लादेशियों का बोझ लाकर और बिना एक इंच जमीन जीते जीते।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण से बिज़नेस घरानों का बैंक पर से नियंत्रण हटा दिया गया, उस समय बैंकिंग में सुधार नहीं किया गया। बैंको में यदि सुधर सही ढंग से की जाती तो गरीबी हटाओ का नैरा कही न कही एक सही दिशा में आगे बढ़ पाती। परन्तु इंदिरा की सोच सिर्फ इतनी थी की हर संस्था में सिर्फ और सिर्फ इंदिरा और संजय का कब्ज़ा हो।
पंजाब और कश्मीर में अस्थिर सरकार :
1977 में हुई चुनावी हार के बाद दोबारा सत्ता हासिल करने के लिए इंदिरा लड़ीं और तीन साल बाद उन्हें इसमें कामयाबी हासिल हुई।
लेकिन इसके बाद एक बार फिर उनका सारा ध्यान ताक़त हासिल करने पर केंद्रित था। पार्टी में व्याप्त चाटुकारिता की कोई सीमा नहीं थी और आलाकमान को ज़मीनी हक़ीकत बताने की कोई भी हिम्मत नहीं करता था।
इस बार पहले उन्होंने पंजाब में विपक्षी सरकार को कमज़ोर करने की कोशिश की और सत्ता में क़ाबिज़ अकाली दल का विरोध करने के लिए संत जरनैल भिंडरावाले को प्रोत्साहित किया।
भिंडरावाले ने पैंतरा बदलते हुए उनकी सत्ता को ही चुनौती दे डाली- जिसके परिणामस्वरूप स्वर्ण मंदिर में ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ और फिर इंदिरा की हत्या हुई।
अगर इंदिरा गांधी एक कठोर निर्णय लेने को तैयार थीं तो उन्हें स्वर्ण मंदिर को क़ब्ज़े में करने और अकाल तख़्त को क़िले में तब्दील करने से पहले ही भिंडरावाले को गिरफ़्तार करना चाहिए था।
पंजाब संकट के दौरान ही उन्होंने कश्मीर की फ़ारूक़ अब्दुल्लाह सरकार को भी अस्थिर कर दिया. यह उन समस्याओं की शुरुआत थी जिससे कश्मीर आज भी जूझ रहा है।
इंदिरा गांधी एक अजीब महिला थीं- एक तरफ़ वो एक ऐसी साहसी महिला थीं जिसने इस पुरुष प्रधान दुनिया में ज़िंदा रहने के लिए अकेले लड़ाई की हो, लेकिन साथ ही हर समय ख़तरों से डरने वाली एक असुरक्षित महिला भी थीं, जो बड़े निर्णय लेने में तब तक आनाकानी करती थीं जबतक कि उन्हें इसके लिए मजबूर न होना पड़े।
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